Wednesday, June 13, 2018

कंप्यूटर वाली प्रेमिका


२००१ में कॉलेज ज्वाइन करने पर, जबरदस्त इन्टरनेट से लैश कम्पूटर सेण्टर मिल गया, हमें २ दिन में कम्पूटर इस्तमाल की बेसिक जानकारी सिखा दी गयी, बाकी जरूरत ही जननी है. ठंडा एयर कंडीशनर, सोने पर सुहागा था. बाथरूम भी एयर कंडीशनड होना ताज्जुब वाली बात थी. पहली बार डाटा सेण्टर देखा और सुपर कंप्यूटर भी. मुद्दे पर आते हैं, कंप्यूटर ज्ञान के पहले पायदान पर ही पोर्न, गेम्स और चैटिंग का पता चला. हमारे लिए चैटिंग का डेफिनिशन : जहां दुनिया के किसी कोने की लड़की से आप संपर्क कर सकते हैं, और उसको आपसे प्यार हो सकता है. हम कुछ लड़के एक लड़की पटाने की स्कीम या नए आप्शन पर खुश हुए और लग गए उस वक़्त के फेमस aol और yahoo ग्रुप पर. उन दोनों जगहों को इस्तमाल करके निराशा ही हाथ लगी, उसी बीच आशा की किरण जगी. एक मित्र ने इन्टरनेट पर लड़की पटाने (सच्चा प्यार) में सफलता हासिल कर ली. हम कुछ लोग उससे इस सफलता का रहस्य जानना चाहते थे, और एक नए चैट ग्रुप का पता चला. कुछ और मित्रों को प्रेमिकाएं मिल गयी. बचे हुए मित्र नयी योजना और अधिक जतन के साथ भीड़ गए. कंप्यूटर रूम प्रेम मिलन वाले पार्क में तब्दील हो गया था, फर्क एक था की यहाँ जोड़े में से एक प्रत्यक्ष था और दूसरा अप्रत्यक्ष कंप्यूटर के दूसरी तरफ. फिर एक रात धमाका हुआ. कुछ मित्रों को पता चला की एक ही लड़की उन सभी से बात कर रही है, सब पे फ़िदा होने का दावा करती है. अभी वो मित्र संभल भी नहीं पाए थे की पता चला की उनकी प्रेमिका लडकी नहीं बल्की एक लड़का है. वो लड़का भी कोई और नहीं बल्की उसी कम्पूटर रूम में बैठा हुआ मित्रा था. वो जनाब प्रेमिका ना मिलने की हताशा में लड़की की प्रोफाइल बनाकर दूसरे मित्रों के मजे लेने लगे थे. यह काम आज फेसबुक के ट्रोल खूब इस्तमाल कर रहे है

Friday, June 8, 2018

IIT कानपुर का अंजान बैचमेट


आज रात ३ बजे, एक iit कॉलेज के दोस्त से बात हुई.. पूरे कॉलेज के समय में ऐसे कुछ लोग हैं जिनसे कभी १-२ लाइन से ज्यादा बात नहीं हुई. ये जनाब भी उनमें से एक हैं, बात करके बहुत मजा आया और कई यादें ताजा हो गयी. उसने मेरे लेखक होने की बहुत तारीफ़ की और फिर एक सुनहरा गिफ्ट दे गया - जानते हैं क्या? फ़ोन काटने के ५ घंटे बाद करीब उसने फिर फ़ोन किया - भाई कहानी लिखना है, कैसे लिखूं? मैंने, जो उसको बताया, आपसे भी शेयर करता हूँ - लिखने को वर्जिस की तरह समझिये. एक बार बहुत वजन नहीं उठा सकते. आपके क्षमता से कमजोर उठाने में आपको मजा नहीं आएगा. तो आपको एक ट्रेनर चाहिए जो आपको गाइड करे और एक ट्रेनिंग प्रैक्टिस तो अभी एक ट्रेनिंग है : सीबीएसई या कोई भी बोर्ड का ६ क्लास के बाद के सारे क्लास की हिन्दी और इंग्लिश की किताब खरीद लीजिये. उनकी कहानियों को फिर से पढ़िए. फिर आप चाहे तो उन कहानियों के आसपास दिए सवालों के जवाब लिखिए. अब प्रैक्टिस : एक छोटी कहानी लिखिए कमसेकम ५०० शब्द की या आपको जितना शब्द सही लगे. आप चाहे तो रोज एक लघु कथा लिख सकते हैं, या हफ्ते में कमसेकम २. इससे कम की प्रोडक्टिविटी में लेखक नहीं बन सकते. रोज २ घंटे का एक्सरसाइज है या उससे भी कम. जिस दिन वर्जिश ना करे, तो उसके बारे में एक पेपर में लिखे की क्यूं नहीं किया. और फिर, १५ दिन बाद. मिलते हैं :)

Thursday, June 7, 2018

ऐसा क्यूं लगता है की किताब लिखना मेरे करियर में किये हर काम से बेहतर है?


ऐसा नहीं है की ये बेहतर है और जो पहले किया वो बेहतर नहीं था या मैंने उसमें मन लगाकर काम नहीं किया. मेरी एक आदत है की जब मेरा मन नहीं लगता तो मैं वो काम छोड़ देता हूँ. इसलिए जब भी लिखा पूरी इमानदारी से लिखा. ये एक मेरी आदत है की मैं जब लिखने पर आता हूँ तो मैं २४X७ काम करता हूँ. हर वक़्त लिखना या लिखने के बारे में सोचना. उसमें अगर कोई विघन्न आ जाए तो वो मुझे बिलकुल पसंद नहीं. टीवी और फिल्म बनाने में बहुत पैसा लगता है और कम ही बन सकती है, ऐसे में कई बार कहानियाँ शुरू होती है मगर पूरी नहीं होती, मेरे पास कम से कम २० से ज्यादा नावेल के बराबर मटेरियल लिखकर पड़ा है. जिसको लिखने में समय लगा लेकिन अभी भी वो सम्पूर्ण नहीं है तो वो दर्शक के पास नहीं भेजा जा सकता. इसके बावजूद वो कहानियां मेरे जहाँ में घूमती रहती है, और अगर मैं उनको बाहर ना निकालूँ तो मुझे खटकता रहता है. ऐसे में उपन्यास एक अच्छा माध्यम समझ आया. इसकी अपनी चुनौतियां है, जैसे छोटा मार्किट होना या पब्लिशिंग में मैं बिलकुल नया हूँ, बस एक बात है जो ख़ास है की अच्छा उपन्यास लिखने में बहुत समय लगता है और वैसे ही अच्छा काम फिल्म या टीवी के लिए. फिल्म और टीवी में पहले ही डील हो जाती है की मुझे कितना पैसा मिलेगा लेकिन अभी यहाँ उपन्यास में मुझे बिलकुल भी नहीं पता की मैं १०० रुपये कमाऊँगा या करोड़. लेकिन मजा कहानी लिखने का है तो वो करके मैं बहुत संतुष्ट हूँ. कमसेकम अभी के लिए

मैं लेखनी छोड़ कर कंपनी क्यूं खोली?


मुझे एक आदत है एक टारगेट रख कर पूरा करना और फिर दूसरा नया चैलेंज उठा लेना. ये २०१२ की बात है, मैं टीवी में बहुत कुछ कर चुका था. सिवाए एक काम के अपना खुद का शो बनाना, परन्तु उसकी जल्दे नहीं थी क्यूँकी मैं फिल्म बनाने आया था और बहुत सारे सपने थे कहानियाँ कहानी का. वो सब कहीं फिट बैठता हुआ नहीं दिख रहा था. मैं उस समय काम करते हुए २ फिल्म लिख रहा था जिसके बनने की काफी संभावना थी और साथ में एक दोस्त के साथ ये टेक बिजनेस पर बात चल रही थी. एक दिन कुछ अनबन हुई और मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी. उसके बाद पता चला की फिल्म भी नहीं बनेगी, फिर ये कंपनी जो पार्ट टाइम था वो मैं जॉब बन गया. मैं पागलों की तरह इसको सफल होते देखना चाहता था, मेरे लिए एक नयी चुनती बन गयी थी. हर दिन ये एहसास होता की मैं कहानी क्यूं नहीं लिख रहा, फुल टाइम कहानी लिखने का मजा कुछ और था और अभी मैं कभी कभी कुछ लिखता था, पढ़ तो और भी कम पाता था, कहानियों पर रिसर्च एक दम ख़तम हो गया था. ये सब मुझे बहुत बुरा लगता लेकिन मैं वो सब भूल कर ये कंपनी खड़ी करने में लगा था ताकी मुझे पैसों की चिंता ना हो. पर जीवन मुझे एक और ज्ञान देने वाली थी, जिसमें तजुर्बा ना हो और मन न लगे तो काम नहीं हो सकता. वो कंपनी नहीं चली और मेरे पास फिर से लेखनी पर फोकस करने के लिए समय आ गया. शुक्रगुजार हूँ की ऐसा हुआ.. कंपनी खोलने के पीछे भी मकसद अच्छी कहानियाँ कहने का इरादा था, कंपनी एक मूवी स्ट्रीमिंग की कंपनी थी जहां कोई भी अपनी फिल्म ऑनलाइन दिखा कर पैसे बना सकता है. मुझे लगा ये बढ़िया रास्ता खुल जाएगा, साल की २ फिल्म बनाओ लेकिन वो संभव नहीं हुआ.

मैंने IIT के बाद टीवी के कथा और पटकथा लेखन में कैसे आ गया?


मैं जब iit से पास हुआ तो मैं फिल्म बनाना चाहता था. बचपन से ही फिल्म बनाना चाहता था. जब फिल्म इंडस्ट्री में फिल्मों की हालत देखता और खासकर कहानियों की तो सोचता था की ये अच्छी कहानियाँ क्यूं नहीं लिखते, उसके बिना तो फिल्म बन ही नहीं सकती. तो जब मैं फिल्म इंडस्ट्री में जुड़ा तो एक रास्ता था डायरेक्टर बनाना और दूसरा लेखक बनाना. कुछ डायरेक्टर के साथ काम करके समझ आया की मैं ये नहीं करना चाहता. तो बचता था लेखनी और वो मैं करने लगा. बचपन के स्कूल समय में टीचर भी कहते की मुझे कहानी कविताओं की अच्छी समझ है तो उनकी कही बात हौसला बढ़ाने में काम आया. बचपन में जब फिल्में देखता तो घंटो और दिनों बैठकर सोचता थी की इस फ्लॉप फिल्म की कहानी कैसे कही गयी होती तो ये हिट हो जाती. सिनेमा देखकर उसकी कहानी जबतक १५-२० लोगों को न सुना दूं चैन नहीं पड़ता था. फिल्में बहुत लंबा समय लेती है और किस्मत से एक बार टीवी लिखने का मौक़ा मिला, और जो लिखा वही सुपरहिट हो गया तो बहुत ख़ुशी हुई. लेकिन फिल्म और वेब के लिए लिखने को बहुत बेचैन हूँ या फिर मेरे टीवी शोज जो मैंने पिच कर रखे हैं या और भी करता रहता हूँ, वो सब लिखने और बनाने के लिए बहुत बेचैनी है.

Wednesday, June 6, 2018

खंड -२ : जासूसी उपन्यास लेखन के बेताज बादशाह "वेद प्रकाश कम्बोज" जी के साथ बातचीत


आज श्री वेद प्रकाश कम्बोज जी, जासूसी उपन्यासों के महान लेखक से लेखनी पर कई बातें हुई, उसका मोबाइल रिकॉर्डिंग है ये और वो आपसे शेयर कर रहा हूँ. इसमें हमनें ३ बातों पर ख़ास चर्चा की. 1. लेखनी की सीमा 2. लेखक के लिए रिसर्च 3. अपने लिखने की कला को धार कैसे दें सुनिए बातचीत : भाग #1 सुनिए बातचीत : भाग #2 सुनिए बातचीत : भाग #3 ऑडियो मोबाइल पर रिकॉर्ड होने से कई जगह अस्पस्ट है. जल्द ही इसको शब्दों में भी पेश किया जाएगा. आपमें से जो ये काम करने के इक्छुक है, कृपया मेसेज छोड़े धन्यवाद

Monday, June 4, 2018

खंड -१ : जासूसी उपन्यास लेखन के बेताज बादशाह "वेद प्रकाश कम्बोज" जी के साथ बातचीत


वेद प्रकाश कम्बोज - जासूसी लेखक मैंने कम्बोज जी का नाम पहली बार कुछ दिन पहले सुना. पहली बार सुना था तो उतना असर नहीं हुआ इसका दोष मेरी अज्ञानता को जाता है. मैंने हिन्दी पल्प नहीं पढ़ा था. हाँ फेसबुक पर ही कुछ दिन पहले कुछ दोस्ती हुई थी और उनलोगों ने उनके उपन्यास पढ़ रखे थे. इससे बीच चमेली की शादी के लेखक का नाम पता चला. ओम प्रकाश शर्मा जी के विषय में पता चला... १९६० -७० और उसके बाद के दौर के बड़े नाम थे ओम प्रकाश शर्मा और वेद प्रकाश कम्बोज जी. इन्होने जितने उपन्यास लिखे वो खुद में एक बड़ी बात है. ये अग्रणी थे हिन्दी भारतीय जासूसी उपन्यास लेखनी के. कम्बोज जी और शर्मा जी बहुत करीबी थे और इन दोनों महान लेखकों के उपन्यास पाठकों के बीच बहुत प्रचलित थे. सबसे बड़ी बात की, वेद प्रकाश कम्बोज जी, को देश के मशहूर लेखक "वेद प्रकाश शर्मा" जी और "सुरेन्द्र मोहन पाठक" जी गुरु तुल्य मानते हैं. इनके गढ़े गए कई किरदारों को आने वाले समय में वेद प्रकाश शर्मा जी ने इस्तमाल किये और उनपर ढेर सारी कहानियाँ लिखी. सभी उपन्यास सफल रहे एक दिन वेद प्रकाश कम्बोज सर के पुत्र मेशु कम्बोज जी से बात हुई और आज कम्बोज सर जी से बात हुई, फ़ोन पर ही सही. उन्होंने कई सुझाव शेयर किये. लेखनी से ज्यादा जीवनदर्शन कहना सही होगा. लेखनी जीवनदर्शन से ज्यादा क्या ही कुछ है. २ ज्ञान उनके दिए हुए शेयर करता हूँ १. रोज कुछ लिखो.... २ शब्द ही सही पर लिखो २. हर बार पहले वाले से बेहतर लिखने की कोशिश रखो सुनिए बातचीत का भाग #1 सुनिए बातचीत का भाग #2 धन्यवाद मेशु जी. धन्यभाग जो श्री वेद प्रकाश कम्बोज से बात हुई.

iit से टीवी सीरियल लिखने का सफ़र और फिर उपन्यास


कुछ एक दोस्तों ने ये संघर्ष के विषय में बताने को कहा - तो पेश है

२००७ - IIT से पास होकर मुंबई आ गया.
२००६ - एक साल पहले समर इंटर्न करने के बहाने मुंबई आया था ३ महीने के लिए, तब RGV ग्रुप के कई फिल्म डायरेक्टर के साथ कहानी बनाना और क्या करना है समझा - लेखनी पसंद थी और यहाँ जरूरत भी, जो देखो बुरी कहानियों के वजह से फिल्म नहीं चलने की बात करते थे.

२००७ -

बहुत प्रोडक्शन हाउस में कम माँगने गया लेकिन काम नहीं मिल रहा था. बल्की लोगों से बातें भी नहीं होती. किसी को जानता भी नहीं था. ४ हजार रुपये लेकर आया था जो ख़त्म होने लगे... मैंने सोचा होम क्लासेज ले लेता हूँ. कोशिश भी करी, १-२ बच्चे मिले और तभी अगस्त में मुझे एक फिल्म "राईट या रौंग" में असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर काम करने का मौक़ा मिला. क्लासेज वाली बात वही रह गयी.

फिल्म की १ शिफ्ट करके के बाद मैं उदास हो गया. ७ हजार की जॉब थी ना घर का किराया होता और ना खाने को... ना ही गाडी लेकर सेट पर जाने को. तभी मुझे नौकरी से भी निकाल दिया गया

कुछ महीने मैंने शेयर मार्किट में ट्रेडिंग किया ताकी कुछ पैसा इकठ्ठा कर सकू . लेकिन वहाँ भी घाटा लग गया

तभी एक मित्र ने जाकारी दी, डबिंग फिल्मों में लेखक की जरूरत है, मैंने किया नहीं था लेकिन काम करने में कोई हर्ज़ नहीं था. मैंने जम कर करीब १ साल तक अंग्रेजी फिल्मों की डबिंग करता रहा.

फिर देखा की इसका भविष्य बहुत अच्छा नहीं है और डबिंग स्क्रिप्ट लिखने का रेट तेजी से गिरता ही जा रहा है.

तभी मुझे बालाजी के एक लेखक ने अपने साथ जुड़ने का मौक़ा दिया... वो एक फिल्म लिख रहे थे और मैं भी उनके साथ फिल्म लिखने लगा. २ महीने बाद वो अचानक गायब हो गए और पता चला वो पागलखाने में है. बहुत दुःख हुआ क्यूँकी काफी अच्छे इंसान थे और उनके परेशानी को मैं जानता था. उनसे समझ में आया था की टीवी आराम से लिखा जा सकता है, बस डिसिप्लिन चाहिए

२००८ :

पता चला की टीवी लेखनी में मौक़ा एक घोस्ट राइटर के तौर पर मिलता है. तो मैंने कई टीवी के लेखकों का नाम पता किया और उनके पास काम माँगने गया लेकिन बात नहीं बनी. इसी बीच मैं २ शोर्ट फिल्म्स, मुंबई के बहुत बड़े एडवरटाइजिंग मुंद्रा के साथ और दूसरा एक संजय लीला भंशाली के साथ काम किये हुए डायरेक्टर के साथ काम करने का मौक़ा मिला - "सुनो ना" नाम की फिल्म थी. पर इन सबमे पैसा नहीं मिल रहा था और मेरी माली हालत बहुत खराब हो गयी थी, अच्छा था की कॉलेज के दोस्त पैसा कमा रहे थे तो उनसे बहुत उधार लिया. लेकिन बहुत अखरता भी था की ऐसा कब तक चलेगा

मुझे एक फिल्म लिखने को मिली और प्रोडूसर बहुत नमी गिरामी है. उन्होंने एडवांस में पैसे भी दिए और काम चालु हो गया. बस मुझे समझ नहीं आ रहा था की मैं लिखूं क्या.. ऐसा महसूस होता था की ये फिल्म बन भी गयी तो फ्लॉप ही होगी. मैंने उस फिल्म को लिखने के लिए लिखना सीखना चाहता था और मैं टीवी में कोशिश कर ही रहा था तो मैंने अपने दसवी क्लास में साथ पढ़ने वाले एक लड़का जो टीवी इंडस्ट्री में शक्रिया था, उससे किसी लेखक का नाम बताने को कहा जहां काम मिल सके.

२००९ :

उसने मुझे टीवी के एक मशहूर लेखक के पास जाने का सलाह दिया और उनका नंबर भी दिया. मैंने लेखक साहब से बात की, मिलने गया और जॉब लग गयी. वो लिखते टीवी थे लेकिन उनको एक फिल्म लिखवानी थी. मैं उनकी फिल्म लिखने लगा और साथ में दूसरे प्रोडूसर की फिल्म. २ फिल्में लिख रहा था और अगले १ महीने में दोनों ही बंद हो गयी. अपनी अपनी वजहों से.

टीवी वाले लेखक के यहाँ "अगले जन्म मोहे बिटिया कीजो" का पटकथा लिखा जा रहा था. किस्मत से ये शो मुझसे पहले भी टकरा चुका था और अब फिर से ये मेरे सामने था. कहानी बिहार की पृष्ठभूमि पर थी और गांव की कहानी थी जहां मैंने अपने जीवन का बहुत बड़ा समय गुजार चुका था, काफी अनुभव था. तो लिखता गया और सीखता गया... और मेरे काम को बहुत सराहा गया और सीरियल भी देश भर में फेमस हुआ. तभी उन लेखक के हाथ से ये शो चला गया और दूसरा शो मिला नहीं तो मुझे भी लिखने को कुछ नहीं मिल रहा था.

२०१० :

तभी मेरी शादी तय हो गयी. अब एक मासिक आय की जरूरत थी और मैं ऐसी नौकरी ढूँढने लगा जिसमे हर महीने काम हो और पैसे आये. तभी २ सीरियल मेरी नजर में थे. लापतागंज और आहट - दोनों शो में मैंने अपनी लिख कर भेजी, लापतागंज वालों का कोई जवाब नहीं आया और fireworks प्रोडक्शन हाउस ने कहानी लिखने के जॉब पर रख लिया.

३ साल तक खूब लिखा.. cid की रेटिंग १.२ से ६ से ऊपर निकल गयी और टीवी का नंबर १ शो बन गया. मुझे फिल्मों में कुछ करना था, साइड से मैं अपनी एक फिल्म लिख रहा था जो कुछ हद तक कमिसन थी लेकिन पैसे नहीं मिले थे. एक हॉरर फिल्म थी वो भी एक डायरेक्टर बिना पैसे लिखवा रहा था. जबकी मैं ये सब काम ज्यादा पैसे कमाने के लिए कर रहा था.

२०१२

मैंने iit किया था और टेक्नोलॉजी में बहुत पैसा है, और मुझे ऐसा लग रहा था की फिल्म वालों को पैसे कमाने का मौक़ा मिल जाये तो फिल्म बनाना कितना मजेदार हो जाए. तो मैंने एक ऑनलाइन प्लेटफार्म बनाने का प्लान किया अपने iit के सहपाठियों के साथ. लेकिन वो नहीं चला और बहुत नुकसान हुआ

२०१४ - २०१५

इस बीच मैं अदालत, फियर फाइल्स और कुछ सीरियल के एपिसोड लिखता रहता था लेकिन मैं डिप्रेशन में आ गया था... इतनी उधारी चढ़ गयी थी की समझ नहीं आ रहा था की मैं बाहर कैसे निकालूँगा. हर कुछ महीने पर मैं पैसे जमा करता और एक के बाद एक कम्पनीज खोलता गया और सब बंद होती गयी... पैसे का और ज्यादा नुकसान हुआ.

मैंने अब तय कर लिया था की लेखनी आती है और उसमें मजा भी आता है, तो ये सब संघर्ष करने से अच्छा है की मैं लेखनी ही करूं. लेकिन मैं सिर्फ टीवी और फिल्म के भरोषे नहीं बैठना चाहता था. मैंने टीवी के साथ साथ हिंदी पल्प पढ़ा.. कॉमिक्स में काम के मौके देखे... विडियो गेम्स में भी कहानिया लिखी जाती है लेकिन वो माहौल भारत में नहीं आया था.

२०१६

तभी मेरा पैर टूट गया और ऑपरेशन हुआ... करीब २ महीने मैं घर से बाहर नहीं जा पाता था. ऐसे करीब एक साल बीत जाने थे तो मैंने लिखने के विषय में बहुत से लेखकों को पढ़ा, उनके विडियो देखे... बहुत सी किताबें पढी.

२०१७

अब मैं अपने दम पर आने जाने लगा था.... अपने लिखे टीवी शो पिच किये, जो बने नहीं. कुछ टीवी सीरियल के लिए स्क्रिप्ट सुपरवाइज़ किया. आखिरकार मैं अब कहानी लिखने के लिए बेचैन था.

अमेज़न ने सेल्फ पब्लिशिंग को लेकर जो काम किया था वो मुझे बढ़िया लगा और मैंने उपन्यास की दुनिया में अपना हाथ आजमाने का सोचा..

२०१८

फिर करीब १८ महीने में, मेरा पहला उपन्यास "कौवों का हमला" पूरा हुआ.. जो अब प्रकाशित होकर पाठकों के बीच जाने को तैयार है